Friday, May 4, 2012

5 Elements of Nature

a poem written for Pranava's school annual day function, where a musical play was staged on the theme of five elements of nature being disharmonised by man.

हवा (Air)
बहती थी , चलती थी, कभी निर्मल थी ये ह्वा ,
अब बन गयी है  देखो,बस घुँआ ही घुँआ.
दूषित हो गयी है इंसान की एक- एक साँस
घुट - घुट कर मर रही है, जीवन की आखरी आस ।

पानी (Water)
कभी प्रेम की वर्षा करता, कभी बिन बरसे चल जाता है 
कभी समुद्र से ये उफनता, कभी आकाश से प्रलय बरसाता है 
कभी अन चाहा तूफ़ान लाकर, जग जीवन को तड़पाता है,
कहीं - कहीं पर ओझल होकर, सृष्टि को तरसाता है।

धरती (Earth)
कट  रहे वृक्ष , हर तरफ भुकमरी, धरती भी फट रही,
पेट की ये भूख़ , ये आग, इंसान को  इंसान से  लड़ा  रही 
ना मुझको मिली, ना तुझको मिली, कैसी ये नियति,
भूख से त्रस्त , बंजर हो रही, आज ये प्रकृति ।

अग्नि (Fire)
आँखों मैं है धधकती, लपटों में अब झुलसती
बन गयी ज्वालामुखी, जो आग कभी थी बस सुलगती
जल रही मेरे अन्दर, बेखोंफ , बेलगाम
क्रोध और नफरत से कर रही, इंसानियत का विनाश ।

आकाश (Space)
मैं अग्नि, मैं धरा, मैं पानी मैं हवा, .......मैं भ्रमांड 
है सब मुझमे, दी मैंने ख़ुद को ही ये सजा 
ये आंधी, ये भूक, ये आग और ये पानी,
ये प्रकृति का है तांडव, या है इंसान की नादानी । 
अपने में ही सिमट गए मेरे ये सारे तत्त्व 
विनाश के साए मैं खो गए, प्रकृति के पांचो तत्त्व 
मैं जिन्दगी हूँ, मेरी कोख से बना था इंसान का अस्तित्व,
अपने हाथो से खत्म किया उसने, अपना ही व्यक्तित्व ...

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